बुधवार, 10 मार्च 2010

आखिर खुद कायदा-क़ानून तोड़कर यह कैसा सन्देश देना चाहते हैं बिहार के " सुशासन बाबू" यानी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार

बिहार के पिछड़े वर्ग के नेताओं का कोई सानी नहीं है.आजादी के करीव चार दशकों तक एकछत्र राज करने वाले राजद सुप्रीमों लालू प्रसाद यादव हों या वर्तमान में जद(यू)के कद्दावर नेता राज्य के लोकप्रिय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार.लालू जी ने बिहार की सत्ता के शीर्ष पर रहते हुए कुछ ऐसी गलतीयाँ की थी,जिसका परिणाम सामने है और वे सत्ता से काफी बाहर दिखाई दे रहें है.आज कल देश में सुशासन बाबू के नाम से चर्चित हो रहे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी सत्तामद या कहिये लोकप्रियातामद में चूर होकर कुछ ऐसा ही कदम उठा रहे हैं जो उनके राजनीतिक जीवन हेतु घातक कदम साबित हो सकता है.सच पूछिए तो बिहार की सामाजिक बनाबट के आलोक में निश्चित तौर पर उन्हें नुकसान होगा हीं.
भारतीय संसद के दोनों सदनों में बहुप्रतीक्षित महिला आरक्षण बिल के मुद्दे पर नीतीश कुमार ने जो रवैया अपनाया,वह उनकी पार्टी जद(यू)को लेकर कई सवाल खड़े करते हैं.पहला ये कि क्या किसी महत्वपूर्ण पद पर बैठा व्यक्ति अपने राजनीतिक दल की मर्यादाओं से ऊपर होता है? यदि होता है तो नियम सिर्फ दल के कद्दावर नेताओं पर ही क्यों लागू होता है.आम कार्यकर्ताओं/ नेताओं पर लागू क्यों नहीं होता? वेशक नीतीश जी के आँखों पर उन्हीं की वर्णवादी मीडीया छवि ने एक ऐसा पर्दा डाल दिया है,जिसके पार उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है.आखिर शरद यादव जैसे अनुभवी पार्टी अध्यक्ष समाजवादी नेता के महिला आरक्षण बिल में सुधार की बात को सीधे नकार देना उनकी "हिटलरशाही" को ही इंगित करती है.जिसका आरोप उनपर आये दिन चर्चित रहा है. लगता है कि विगत विधानसभा उपचुनाव से उन्होंने कोई सबक नहीं ली है. जिसमें वे बुरी तरह से मात खाये थे. सिर्फ "लालू के भूत" का भय दिखाकर बिहार जैसे संवेदनशील आवाम को जनमत में तब्दील नहीं किया जा सकता.लालू जी ने पूर्व में जो "कांग्रेस की कुत्सित मानसिकता "का भयावहः चेहरा दिखाकर अधिक दिनों तक राज करने का मूल कारण वैकल्पिक विपक्ष का होना था.लेकिन नीतीश जी के सामने वैसी स्थिति नहीं है.उनका विचारहीन रवैया उन्हें निश्चित तौर ले डूबेगा.

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